STORY OF GURUS IN THEIR OWN WORDS गुरुओं की कहानी उन्हीं के शब्दों में (अपने जीवन को प्रकाशमय और साकार बनायें) Charvak Rishi
हमें अपने जीवन में ज्ञान के अथाह सागर में गोता लगाने का पूरा अधिकार है इसके लिये उसको संतो की शरण की अति आवश्यकता होती है जो इस दुनियॉं के एक मात्र उस परमपिता परमेश्वर की असीमित उर्जा स्त्रोत के उत्तराधिकारी हैं उनकीे कृपा करूणा मात्र से हमारा जीवन आलौकिक शक्तियों से भर जाता है।
इसी से प्रेरित होकर हम आपके ज्ञान को और अधिक बढाने व सत्य मार्ग की खोज में सहायता के संकल्प को सहारा देने के उद्देष्य से आपको आध्यात्म से जोडे रखने के लिये यह सीरीज शुरू कर रहे हैं जिसमें आपको विभिन्न प्रकार के पंथ व दर्शन शास्त्रों के वारे में बतायेंगें और भारत को सोने की चिडिया क्यों कहा जाता है, का अर्थ भी समझायेंगें।
आज इस क्रम में भारत में अभिलेखों के लिखने की परम्परा की शुरूआत के समकालीन संत गुरू चार्वाक के वारे में लिखा है ।
1.गुरू चार्वाक ऋषि
गुरू चार्वाक ऋषि को वृहस्पति या लोकायत अन्य नामों से भी जाना जाता है इनका समय काल वेदों के बाद और बौद्धों और जैनों से पहले लगभग 600 ईसा पूर्व का माना जाता है लोकायत संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ सांसारिक लोग है ये कहना गलत न होगा कि
गुरू चार्वाक ने दुनियॉ के लिये एक अनोखे दर्शन शास्त्र की रचना की जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा "खाओ पियो और एैश करो" और अपने अनुयायियों व दुनियॉं को खुलेआम वेदों, पुराणों और वैदिक ऋषियों और वैदिक कर्मकाण्ड के विपरीत ज्ञान दिया
और चुनौतीपूर्ण लहजे में धर्म को नकारा था जिसमें कहा गया था कि लोक-परलोक, कर्म, मुक्ति,पवित्र शास्त्रों, वेदों के तथ्यों, स्वर्ग नर्क, ईश्वरीय सत्ता और अमरत्व की तमाम धारणाओं को जड से खारिज कर दिया था इसके विपरीत स्वंय ज्ञान साधनों को प्रमाणों के आधार पर प्रत्यक्ष और पूर्ण अनुभवों को ही ज्ञान माना लोकायत या चार्वाक के नाम से स्कूल का भी वर्णन लेखों में मिलता है जिसके ज्ञान के स्त्रोत में अनुयायियों को अवसरवाद जैसी अवधारणाओं को चित्रित किया है।
बात बहुत पुरानी है लगभग 600 ईसा पूर्व में भारत में एक एैसे संत हुए जो विल्कुल नास्तिक छवि के रूप में प्रकट हुए जिन्हें कुछ लोग आज नकारात्मक रूप से याद करते हैं या फिर उनका नाम लेने से परहेज करते हैं हॉलाकि उनके लिखे दर्शन शास्त्र के कुछ लिखित में तो प्रमाण अवशेष के रूप में टुकडों में ही मिले हैं वरन महाभारत, जैन और बौद्ध अभिलेखों में प्रबल रूप में मौजूद हैं उन्होने अपने लेखों दुनियॉं को संदेश दिया कि कोई भी ईश्वर रूप में इस जगत में मौजूद नहीं है सब कुछ आप में ही आप हैं
यवज्जीवेत, सुखम जीवेत ।
ऋणम ऋत्वा, घ्रितम पिबेत ॥
भसिमभूतस्य देह्स्य ।
पुनार्गमनम कुतः ?
2.गुरू चार्वाक ऋशि के अभिलेखों के सबूत व भाषा
गुरू चार्वाक ऋशि के सभी लेख, श्लोलोक संस्कृत भाषा में लिखित हैं जिन्हें स्पष्ट रूप में महाभारत,जैन और बौद्ध दर्शन ग्रन्थों में बहुतायत देखा जा सकता है।
लोकायत या चार्वाक ऋषि का दर्शन बहुत लोकप्रिय हुआ और लोगों में बहुत अधिक पसंद भी किया जाने लगा देखते ही देखते कुछ ही समय में लोंग लोकायत के सभी अवधारणाओं को मानने लगे किन्तु बौद्धों,जैनों और अद्वैतवादी दर्शन के उभरने के बाद चार्वाक को धीरे-धीरे भुला दिया गया।
श्रीमन्म्ध्वमते हरिः पजतरः सत्यं जगत तत्त्व्रतो
भेदो जीवगणाः हरेरनुचराः नीचोच्चभावग्ड्ताः।
मुक्तिर्नेजसुखानुभूतिरमलाभक्तिश्च तत्साधनं
ह्राक्षादित्रित्यं प्रमाण्मखिलाम्नायैकवेध्हो हरिः ॥
गौरवतलब है कि न तो ऋषि चार्वाक के बारे में कोई स्पष्ट और सटीक जानकरी मिली और ना ही उनके लेख दर्शन शास्त्र ही पूर्णरूप से कहीं मौजूद है लेकिन ऋषि चार्वाक वेदों और बौद्धों, जैनियों से पहले हुए थे क्योंकि बौद्धों और जैनों के दर्शन में ऋषिवर के लिखित प्रमाण व जिक्र मिलता है स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी ऋशि चार्वाक के अत्यधिक श्लोक अपने ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में उद्धृत किए थे।
3.ऋशि चार्वाक की शिक्षा व उपदेश
ऋषि चार्वाक ने अपने सभी लेखों और उपदेशों में जोर देकर कहा कि वेदों को तो धूर्त लोगों ने लिखे हैं और उन्हें मानने का कोई मतलब नहीं है। चार्वाक को लोकायत और वृहस्पति दो अन्य नामें से भी जाना जाता है कुछ मतालंबियों की माने तो ऋशि चार्वाक पहले हुए फिर वृहस्पति नामक ऋषि आये जो चार्वाक पंथ को मानते थे और उन्होंने ही चार्वाक पंथ को प्रसार कर लोगों के बीच पहुॅचाया। जिसका सीधा और सरल मतलव था कि जो कुछ भी है इसी जीवन और इसी धरती पर ही है आर्ट ऑफ जॉयफुल लिविंग
के जनक थे ऋशि चार्वाक ।
उनकी शिक्षा थी कि वेदों के अनुसार ऋषि कहते हैं कि सुख छोडकर दुःख को अपनाओ ये मूर्ख लोंगों के कार्य हैं जबकि ऋषि चार्वाक के अनुसार जिस तरह किसान गेहॅूं को अपनाकर भूसे को छोड देता है ठीक उसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में दुःखांे को त्यागकर सुख को अपनाकर अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहिए दुख को
ऋशिवर के अनुसार जो लोग परलोक में सुख की चाह लेकर पूजा पाठ, यज्ञ, उपासना आदि के चक्कर में पड पर अपने सुखों को त्याग देते हैं वह मूर्खतापूर्ण कार्य हैं सब कुछ यहीं पर है और वह इसी धरती है।
4. चार्वाक का क्रान्तिकारी दर्शनशास्त्र और वेद
यदि हिन्दू शास्त्रों की मानें तो वेदों को ब्रहमा के मुख से निकला हुआ बताया जाता है किन्तु ऋषि चार्वाक का वह दर्शन जिसने वैदिक धर्म की नींव हिला दी थी। अग्निहात्रं त्रयो वेदा...... यानी अग्निहोत्र करना, तीनों वेदों को मानना और भस्म रमाना बुद्धिहीन लोंगों का काम है कुछ लोगों का मत है कि ऋषि चार्वाक के समय तक केवल तीन ही वेद थे चौथा और अथर्ववेद बाद में लिखा गया क्योेंकि प्राचीन भारतीय दर्शन में वेद त्रयी की बात कही जाती है वह सिर्फ और सिर्फ ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद । ठीक इसी प्रकार चार्वाक के कुछ स्लोक कहते हैं न तो कोई स्वर्ग है और न कोई नर्क और न कोई परलोक ही है जो कुछ भी है वह केवल धरती पर और यहीं है
5. रूढिवाद और अंधविश्वास का सख्त विरोध
ऋषि चार्वाक के अनुसार न कोई स्वर्ग है और ना कोई नर्क है और ना ही कोई परलोक को जाने वाली आत्मा और न कोई कर्मफल, जो कुछ भी है वह सब स्पश्ट दिखाई देने वाला यहीं है
यदि श्राद्ध कर और कौए को पकवान खिलाकर पितरों के पहुॅंचता है तो कौए को खिलाया हुआ विदेश गये आपके पिता तक क्यों नहीं पहॅुचता है यह सब मूर्खता ही है और मूर्ख बनकर दुखों में क्यों जिया जाये अक्लमंद होकर सुखों को अपनाकर सुखमय
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृत पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
जिसका अर्थ होता है कि जब तक जीना चाहिए सुख से जीना चाहिए अगर अपने पास साधन नही है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिए, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है अतःसदा ही सुखमय जीवन की ही इच्छा रखते हुए जीवन जीना चाहिए।
इसी क्र्म मे आगे ऋषि महावीर स्वामी जी के जीवन चक्र पर पढेंंगें
- 1. ऋषि महावीर स्वामी
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