BHAKTI भक्ती, सेवा, सबकुछ प्राप्त करें
इस लेख के माध्यम से हम बात करेगें उस परमपिता के साथ अपने सम्बंध को स्थापित करने को जिसे आध्यात्म की शुरूआत भक्ति कहा जाता है, के बारे में विस्तार से जानेगें। जिसके विभिन्न प्रकार होते हैं और जीवों में सर्वोच्च मनुष्य को भक्ति क्यों और कैसे करनी चाहिए और भक्ति गीत, गाना, भजन के माध्यम से हम भक्ति के मार्ग को कैसे प्राप्त कर सकते हैं के अन्तर को उदाहरण सहित समझेगे। तथा भक्ति का हमारे सांसारिक व आध्यात्मिक जीवन पर कैसे प्रभाव पडता है और उसकी उपयोगिता का वर्णनात्मक खण्डन क्या है, पर प्रकाश डालते हुए बिन्दुवार व्याख्या को समझेंगे।
1-भक्ती क्या है
भक्ति संस्कृत भाशा का शब्द है जिसका अर्थ भजन करना या सेवक, हिस्सेदारी, अटल प्रेम, पूजा अर्चना, विनती, वन्दना, प्रार्थना, समर्पण, विश्वास, पवित्रता और एक भक्त के द्वारा भगवान या ईश्वर और भक्त के बीच प्रतिनिधित्व करने वाले का सेवक जो अनुसरण की सभी ऊॅंचाईयों को लाॅंघ कर और अपने आप को सम्पूर्णतः उसी एक मार्ग का द्योतक बने रहने के बाद अपने लिये मोक्ष के तमाम मार्गों को खोलने वाले एक विषेश व्यक्तित्व को कहते हें। किसी भी लिंग, जाति, धर्म, और वर्ग का हो सकता है जबकि वेदों में भक्त एक मात्र सेवक या किसी एक ही प्रयास के लिये तत्पर बने रहना या प्रेम को कहा गया है
भक्ती मुख्यतः प्रेम, सेवा और समपर्ण ही है जो कि हिन्दू धर्म और भारत के सभी धर्माें जैसे ईसाई, जैन, बौद्ध, सिख और मुस्लिम धर्मों में भी पायी जाती है हिन्दू धर्म के तो भक्ती मानो रीड की हडडी है भारत में मुख्यतः भक्ती के ही बल पर मीरा बाई, ने जगत और मोक्ष को अपने वस में कर लिया था और भक्त रविदास और भक्त प्रहलाद जैसे भक्तों ने अपने जीवंत तक के समस्त भावों और अपने जीवन को भक्ति के सुपुर्द कर दिया था।
2-गुरू भक्ति क्या है
बात भक्ति की हो और गुरूजनों का नाम न आये एैसा करना भक्ति की तौहीन होगी मानो गुरूजनो ने ही सारी भक्ति अपने नाम कर रखी है ओर बात सोलह आना सत्य भी है गुरूजनों ने ही इस योग विद्या की खोज सहस्त्र शताब्दी पहले की है और अब तक उन्हीं के द्वारा भक्ति को निरन्तर प्रसारित किया जा रहा है और इसी योग विद्या का स्वामित्व, एकाधिकार से ही इस प्रकृति का संचालन हो रहा है। गुरू को परिभाषित करना किसी के वस में नहीं है उनकी महिमा तो अपार है ईश्वर से भी परे और पूर्ण ज्ञानी चैतन्यरूप पुरूष होते हैं।
जो शिष्य, व्यक्ति विषेश, सेवक, जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा की पराकाष्ठा को सम्पूर्णतः समझ ओर परखने की क्षमता रखता है वह अपने सारे सवालों के जबाव के लिये किसी एैसे व्यक्ति विषेश विद्वान की तलाष करता है जो उसकी जिज्ञासा के सर्वौच्चतम मान को सन्तुष्ट कर सके जिन्हें आध्यात्मिक ज्ञान का परम स्वामी कहा जाता है की शरण में जाकर अपनी सेवा के भाव को प्रकट कर उनसे दीक्षा मंत्र जो मोक्षदायी होता है को प्राप्त कर सदां सदां के लिये वचनबद्ध होकर उनकी सेवा करता है और गुरूजनों के दिशानिर्देशन में भक्ति कमाने लग जाता है यह कमाई आध्यात्मिक कमाई कही जाती है । गुरुजनों की सेवा भक्ति करने मात्र से जन्मों जन्मों के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। और उसकी आत्मा उस परमपिता परमे रूपी प्रकाश में विलीन हो जाती है। जिसे मुक्ति मोक्ष कहा जाता है वह जन्म मरण के बंधन से परे हो जाता है।
3-भक्ती करना क्यों जरूरी है
उस ईष्वर, परमपिता परमेष्वर को कोटि-कोटि नमन और धन्यवाद कि मुझे इतना सुन्दर जीवन आपकी अनुकम्पा से मिला है ऐसा हमारे वेदों और पुराणों में लिखा है जिसका षुक्रिया हमें नित ही करना चाहिए, भक्ति क्यों करनी चाहिए के त्रुटि रहित जबाव के लिये ये षब्द कहना बहुत जरूरी हो जाते हैं कि भक्ति करने से हमारे जीवन के उद्देश्य की पूर्ति होती हैं सन्तजनों और अपने ग्रन्थों के अनुसार ईश्वर की भक्ति करना बहुत जरूरी होता है हमारे जीवन का आधार यही है कुछ लोग तो यहाॅं तक कहते हैं कि यदि हम ईश्वर की भक्ति नहीं करेंगें तो हमें पशु का जन्म मिलेगा ओर हम चैरासी लाख योनियों में ही जन्म लेगें और मरते रहेगें। इन चैरासी लाख योनियों में से सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही एक एैसी योनि हैं जिसको कर्म योनि कहा जाता है। जो ईश्वर की भक्ति कर सकता है और अपनी आत्मा को आनन्दमय अजर औज अमर बना सकता है।
भक्ति करने से हमारे जीवन में सुख, शान्ति, समृद्धि, सुविचार, इत्यादि इत्यादि शामिल होते हैं जिनसे हमारा जीवन रोग रहित बना रहता हैं यदि हम चाहें तों भक्ति से हम असाध्य जैसे रोगों को भी ठीक कर सकते हैं भक्ति में ब्रहमाण्ड की अपार उर्जा शक्ति समायोजित रहती हैं जिसका उपार्जन कर हम अपने जीवन को सफल और शान्त बना सकते हैं।
भारत सदियों से सभी धर्मों का केन्द्र रहा है और भारत वर्ष में हुए सन्तजनों को दुनियाॅं के विश्वगुरु के रूप में देखा गया है जब भी बात भक्ती प्रेम सेवा भाव की आती है तो उस परमपिता परमेश्वर के अथाह प्रेम को भारत के अतिरिक्त कोई भी नहीं समझ सका है इसका उदाहरण भारत में हुए महात्माओं के अब तक भक्ती में लीन होने के साक्ष्य मिलते हैं जिसका जिंदा और ताजा सबूत परमहंस योगानन्दजी की पुस्तक आटोबायोग्रफी में साफ-साफ पुरूजोर कर इस बात पर बल दिया गया है कि भारत में संतजन आज भी हिमालय पर ध्यानमुद्रा में लीन हैं। जो समय-समय पर विपदाओं में संसार को बचाने किसी न किसी रूप में अवश्य आते हैं।
4-भक्ति किसकी करनी चाहिए
हमारे समस्त वेद पुराणों के अनुसार भक्ति का मार्ग केवल चैरासी लाख योनियों में से पुरूष मात्र को ही मिला है जो कर्म करने का अधिकारी है और उस परमपिता प्रकाशरूपी ज्ञान को समझने का अधिकारी है जो इस सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड का रचैयता है अर्थात भक्ति हमें उस जगत के रचैयता की ही करनी चाहिए नाकि स्वर्ग और नर्क के देवी देवताओं की करनी चाहिए भक्ति के विषय में हम इस दोहे के माध्यम से समझते हैं।
बडे भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
अर्थातः बडे भाग्य से हमें मनुष्य का शरीर भक्ति करने के लिये मिलता है जिसे प्राप्त करने के लिये स्वर्ग के देवी देवता भी तरसते हैं इस मानव शरीर का प्राप्त होना बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है जिसे पाकर हम अपने प्रारब्ध को भी सुधार सकते हैं और आने वाले अपने जीवन को भी सुखमय और आनन्दमय बना सकते हैं।
5-क्या मूर्तिपूजा भक्ति है
मूर्तिपूजा किसी व्यक्ति विशेष, मूर्ति व किसी छवि चित्र को ईश्वर भगवान मानकर उसके प्रति प्रेम रखना या पूजा अर्चना करना और एैसा विश्वास कायम करना कि उसे पूजने से हमारे सारे कष्ट और समस्याओं का निदान होगा। मूर्तिपूजा भक्ति नहीं है यह संन्त नीति स्पष्ट करती है और खण्डन करती है कि मूर्तिपूजा करना उस परमपिता परमेश्वर की आराधना नहीं है मुख्यतः हिन्दू धर्म में मूर्ति को स्म्रति बनाकर आध्यात्मिक ज्ञान को अर्जित करना आसान होता है की मान्यताओं की बहुतायत स्वीकृति मिलती है जबकि हमारे वेद और सन्तों की माने तो मूर्तिपूजा करना किसी भी रूप से सही नहीं है संत कबीर जी ने मूर्तिपूजा के लिये अपने दोहे में लिखा है
पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजौं पहार।
वा ते तो चाकी भली, पीस खाये संसार।।
अर्थात कबीर ने अपने दोहे में साफ कहा है कि यदि पत्थरों के पूजने से हरि की प्राप्ति हो जाये तो मै पूरा का पूरा पहाड ही पूजने लगूॅंगा इससे तो पत्थर सी बनी हुई चाकी भली है जो संसार को आटा पीस कर देती है कबीर ने पूर्णरूप से मूर्तिपूजा का विरोध किया है
6-भक्ती गाना
संगीत उस परमपिता परमेश्वर का ही एक अलौकिक अंश है जिसके गुण हमारे अन्दर आने से हम भक्तिमयी हो जाते हैं गाना गाने से हमारे भाव बाहर आते हैं उन भावों के ही सापेक्ष हमें भक्ति फल प्राप्त होता है। भक्ति गाना संगीत के माध्यम से भक्ति को समझा जा सकता है और निरंतर भाव प्रकट होते रहने से भक्ति के सारे मार्ग खुल जाते हैं
इस प्रकार हम ईश्वरीय सत्ता के साथ जुड जाते हैं और भक्ति करने लगते हैं जिससे हम अपने भूत, वर्तमान और भविष्य को संवारते हैं ध्यान देने योग्य बात यह है कि भक्ति संगीत, गाना, बजाना, से परे भजन करना होता है भजन को गाया नहीं जा सकता है उसका मार्ग गुरू जी या सत्गुरू जी अपने शिष्य को गुरू मंत्र के रूप में बताते है। जो मोक्षदायी फल देता है। जिसको प्राप्त करने के लिये हम भक्ति की शुरूआत करते है।
bhai bahut achchha likha hai pane
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